भारतीय सिनेमा के कालजयी पुरुष सत्यजीत रे

 


सत्यजीत रे 'राय' बालीवुड इंडस्ट्री का जाना पहचाना नाम है। भारतीय सिनेमा जगत के उत्कृष्ट निर्देशकों में उनका नाम सबसे ऊपर आता है। 1955 में आयी उनकी पहली फिल्म 'पाथेर पांचाली' को भारत ही नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अत्यंत सराहना मिला था, 'पाथेर पांचाली' को 11 अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था। भारतीय सिनेमा जगत में अकेले ऐसे शख्स है जिन्हें ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा 'डाॅक्टरेट' की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया था। सत्यजीत रे 'राय' भारतीय सिनेमा जगत के एकमात्र ऐसे नाम हैं जिन्हें वो सारे सम्मान और अवॉर्ड मिले, जिसे पाना किसी सपने के सच होने जैसा है। 'पद्मश्री', 'पद्म विभूषण' से लेकर 'दादासाहेब फाल्के' और 'ऑस्कर अवार्ड' तक पुरस्कार उन्हें मिले। इसके अलावा कुल 32 नेशनल अवॉर्ड उनके नाम हैं। साल 1992 में उन्हें भारत के सबसे प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' से नवाज़ा गया। जापान के जाने माने फ़िल्ममेकर अकीरा कुरोसावा ने सत्यजीत रे के बारे में कहा था - 'अगर आपने सत्यजीत रे की फिल्में नहीं देखी तो आप दुनिया में बिना सूरज और चाँद के देखे रह रहे हैं।'

आज हर डायरेक्टर्स और एक्ट्रेस हॉलीवुड सिनेमा की तरफ अपना कदम बढ़ाना चाहता है लेकिन सत्यजीत रे सिनेमा जगत का ऐसा नाम है जिसने हॉलीवुड ही नहीं दुनिया के बड़े बड़े  निदेशक उनसे प्रेरणा लेते हैं। हॉलीवुड के मशहूर निर्देशक' क्रिस्टोफर नोलन' भारत आए थे इस दौरान उनसे जब भारतीय सिनेमा के बारे में चर्चा की गई तो उन्होंने सत्यजीत रे का नाम लिया। उनका कहना था कि उन्होंने 'पाथेर पांचाली' देखी है और उसे देखने के बाद उनकी दिलचस्पी भारतीय सिनेमा में बढ़ गई। ईरानी फिल्मकार 'माजिद मजीदी' ने भारत में आकर 'बियॉन्ड द क्लाउड्स' बनाई। सिनेमा के बारे में बातचीत करते हुए उन्होंने बताया, ''मैंने भारत के प्रसिद्ध निर्देशक सत्यजीत रे के जरिए भारतीय सिनेमा को जाना और मेरा सपना था कि मैं भारत में फिल्म बनाऊं।''

सत्यजीत रे का जन्म 2 मई 1921 को कोलकाता के एक बंगाली परिवार में हुआ था। बचपन में ही उनके सिर से पिता का साया उठ गया। वो सिर्फ दो साल के थे जब 1923 में उनके पिता सुकुमार राय का स्वर्गवास हो गया। उनकी माँ सुप्रभा राय ने उनका पालन-पोषण किया। उन्होंने कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से इकॉनोमिक्स की पढ़ाई की लेकिन बचपन से उनकी दिलचस्पी हमेशा फाइन आर्टस में रही। इसके बाद रे शांति निकेतन गए और वहां पांच साल रहे।

शान्ति निकेतन से 1943 में वापस कोलकाता आकर सत्यजीर रे ने बतौर ग्राफिक्स डिजाइनर के रूप में अपने करियर की शुरुआत की। उन्होंने जिम कॉर्बेट की ‘मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं’ और जवाहर लाल नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ जैसे कई प्रसिद्ध किताबों के कवर डिजाइन किए। यहां पर उन्हें डिजाइन करने में क्रिएटिविटी दिखाने की पूरी छूट थी। उस समय किसे पता था कि ये डिजाइनर एक दिन दुनिया में बतौर फ़िल्मकार भारत का परचम लहराने वाला है। इसी दौरान उन्होंने बिभूतिभूषण बंदोपाध्याय के उपन्यास 'पाथेर पांचाली' के बाल संस्करण पर भी काम किया। इसका नाम था आम आटिर भेंपू (आम की गुठली की सीटी)। इससे सत्यजीत रे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी पहली फिल्म इसी पर बनाई। 


इसके बाद 1949 में उनकी मुलाकात फ्रांसीसी निर्देशक 'जां रेनोआ' से हुई। ये निर्देशक उन दिनों कोलकाता में अपनी फिल्म 'द रिवर' की शूटिंग की लोकेशन तलाश रहे थे। सत्यजीत रे ने  उनकी ये तलाश पूरी की। यही वो दौरा था जब सत्यजीत रे के दिमाग में फिल्म बनाने का विचार आया। रेनोआ से उन्होंने पाथेर पांचाली पर फिल्म बनाने को लेकर भी बातचीत की। उनकी एजेंसी ने उन्हें कुछ काम से तीन महीने के लिए लंदन भेजा। आपको जानकर हैरानी होगी कि सत्यजीत रे ने उसी बीच लंदन में कुल 99 फ़िल्में देखीं। फ़िल्म बाइसकिल थीव्स को देखकर वो काफी प्रभावित हुए। एक बार उन्होंने बताया था कि सिनेमाघर से बाहर निकलते ही उन्होंने फ़िल्म बनाने की ठान ली थी।

लंदन से वापसी के दौरान रास्ते में ही सत्यजीर रे ने फिल्म कैसी बनेगी इसकी योजना बना ली थी। उन्होंने इस फिल्म में करीब सभी नए लोगों को लिया। उनके पास जो थोड़े बहुत पैसे थे उससे ही उन्होंने इस पर काम शुरू किया। हालात ऐसे भी थे कि पैसों के अभाव में फिल्म कई बार रूकी। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने इस फिल्म को बनाने के लिए अपनी लाइफ इंश्योरेंस पॉलिसी भी बेच दी थी। इतना ही नहीं पत्नी के गहने बेचकर भी उन्होंने इस फिल्म में पैसे लगाए। फिर भी काम पूरा नहीं हुआ। उन्होंने ऐसे लोगों से पैसा लेने से मना भी कर दिया था जो इस फिल्म में अपने हिसाब से बदलाव करना चाहते थे। साल 1952 में इस फिल्म पर काम शुरू हुआ और साल 1955 में बंगाल सरकार ने उन्हें पैसे दिए उसके बाद काम पूरा हुआ। साल1955 में पाथेर पांचाली रिलीज हुई और इसे लोगों ने काफी पसंद किया। इस फिल्म को समीक्षकों से भी काफी तारीफें मिली। 'पाथेर पांचाली' ने 11 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीते। ये पुरस्कार उन्हें साल 1956 के कान्स फिल्म फेस्टिवल में दिए गए थे। 

जब इस फिल्म की केन्स में स्क्रीनिंग हो रही थी तो फ्रांसिसि निर्देशक फ़्राँस्वा त्रुफ़ो वहां से उठकर चल गए थे उनका कहना था कि "गंवारों को हाथ से खाना खाते हुए दिखाने वाली फ़िल्म मुझे नहीं देखनी।" इसके बाद जब वो 1970 में मुंबई आए तो उन्होंने इस पर सफाई देते हुए कहा था कि ''इन खबरों के उलट जैसे ही ये फिल्म खत्म हुई मैं पाथेर पांचाली को दोबारा देखना चाहता था। ''इसके बाद उन्होंने फिल्म 'अपराजितो' (1956) और 'अपूर संसार' (1959) का निर्माण किया। इन फिल्मों को भी कई पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। सत्यजीर रे ने अपने करियर में पाथेर पांचाली,  'अपराजितो' (1956) और 'अपूर संसार' (1959), 'देवी', 'महापुरुष', 'चारुलता', 'तीन कन्या', 'अभियान', 'कापुरुष' (कायर) और 'जलसाघर' जैसी तकरीबन 37 फिल्में बनाया। इसमें फीचर फिल्मों के अलावा, डॉक्यूमेंट्री और शॉर्ट फिल्में भी शामिल हैं। साल 1991 में रिलीज हुई आगंतुक उनकी आखिरी फिल्म साबित हुई। 


सत्यजित रे सिर्फ निर्देशक ही नहीं थे। फ़िल्मकार होने के साथ-साथ सत्यजीत रे की पहचान एक सफल लेखक के रूप में रही है। उनका मानना था कि अगर फिल्म को डायरेक्ट करना है तो कहानी लिखनी आनी चाहिए। उन्होंने बहुत-सी शॉर्ट स्टोरी और उपन्यास तथा बच्चों पर आधारित किताबें भी लिखी हैं। 'फेलुदा', 'द सल्यूथ' और 'प्रोफेसर शोंकू' उनकी कहानियों के कुछ प्रसिद्ध किरदार हैं। दादा उपेन्द्रनाथ राय और पिता सुकुमार राय के तरह वे बांग्ला बाल साहित्य के उम्दा लेखकों में आते हैं। सत्यजित रे अपनी फिल्मों की स्क्रिप्ट खुद लिखते थे। आज के दौर में फिल्म बनाने के लिए एक बड़ी टीम की जरुरत पड़ती है लेकिन सत्यजीत रे अपनी फिल्मों का कैमरा वर्क, एडिंटिंग, कास्टिंग, स्कोरिंग और डिजाइनिंग भी वो खुद ही करते थे। ऑस्कर जीतना हर फ़िल्मकार का सपना होता है लेकिन सत्यजीत रे इसके पीछे कभी नहीं भागे। उन्होंने अपनी फिल्मों की एंट्री कभी ऑस्कर के लिए नहीं भेजी। लेकिन उनके काम को देखते हुए 1992 में उन्हें ऑस्कर अवॉर्ड से सम्मानित किया गया और उन्हें ये अवॉर्ड लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड की कैटेगरी में दिया गया था। उस साल सत्यजीत रे काफी बीमार थे और अस्पताल में एडमिट थे। उन्हें ये अवॉर्ड वहीं पर दिया गया था।

सत्यजीत रे को 1958 में 'पद्मश्री, 1965 में 'पद्मभूषण' और 1976 में 'पद्म विभूषण' से सम्मानित किया गया। साल 1967 में उन्हें रेमन मैग्सेसे पुरस्कार मिला। उन्होंने कुल 32 राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी अपने नाम किए। साल 1992 में ही सत्यजीत रे को भारत रत्न से नवाजा गया। इसी साल उन्हें ऑस्कर अवॉर्ड मिला। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि ऑस्कर अवॉर्ड मिलने के 24 दिन बाद ही सत्यजीत रे का निधन हो गया। उन्होंने इस अवॉर्ड को अपने करियर का सबसे बेस्ट अचीवमेंट बताया। 71 साल की उम्र में सत्यजीत रे ने 23 अप्रैल, 1992 को अंतिम सांस ली और संसार को हमेशा के लिए दुनिया को अलविदा कह गए। उन्होंने कहा था, ''किसी फिल्मकार के लिए उसकी पहली फिल्म एक अबूझ पहेली की तरह होती है बनने या न बनने के बीच अमूर्त आशंकाओं से घिरी हुई फिल्म पूरी होती है तो फ़िल्मकार जन्म लेता है। सत्यजीत रे अब नहीं हैं। उनकी फिल्में हैं एक भरा पूरा संसार हैं। पहली फिल्म बनाते समय रे कभी नहीं सोचे होगें कि वो सिनेमाई दुनिया को इस तरह प्रभावित करेंगे और ऐसा काम कर जाएंगे कि दुनिया उनसे प्रेरणा लेगी और उनके कदमों पर चलेगी।


 - बाला नाथ राय

0/Post a Comment/Comments

और नया पुराने