कितना सुखद है बच्चा होना...



सुदर्शन फ़ाकिर द्वारा लिखी गज़ल 'वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी' जगजीत सिंह द्वारा गाई गई इस गज़ल की पंक्तियाँ सुनते ही हम कई बरस पीछे अपने बचपन की दुनिया में खो जाते हैं। सुख और दुःख क्या होते हैं इसकी हमें कोई खबर नहीं थी, हममें से भला कौन होगा, जिसको अपना बचपन बुरा लगता होगा। एक वही यादें है, जो जीवन भर हमारे साथ होती है, कभी रात को चुपचाप बिना बताए भी चला आता है, यह शरारती बचपन हम भले ही यह कहते रहें- भला यह भी कोई उम्र है, जो बचपन जैसी हरकतें करें ? लेकिन दिल कहाँ मानता है ऐसी कोई न कोई हरकत, जिसे हम बचपन में बार-बार करते थे। अब करने का मन भी हो तो करते समय हम भी थोड़ा सहम जाते हैं, कहीं किसी ने देख तो नहीं लिया ना। यह होता है बचपन का एक छोटा-सा अनुभव, जो अन्तर्मन तक गुदगुदा कर रख देता है।

हम सबको बचपन की तो यह अच्छी तरह याद है, जब हम बहते गंगा जी के पानी के बीचों-बीच खड़े हो जाते थे, नीचे से जब रेत खिसकती थी, हमें ऐसी गुदगुदी होती थी जैसे मानों रेत नहीं कोई रुई के फाहों से हमारे घावों को हल्के से साफ कर रहा हो। आज भी जब कभी चोट लगती है, कम्पाउंडर या डाॅक्टर हमारे घाव को रुई से साफ करता है, तो फिर वही अहसास धीरे से हमारे सामने आ खड़ा हो जाता है। हम कनखियों से उसे देख लेते हैं, उसे पास नहीं बुलाते। केवल इसलिए कि कहीं वह हमारे बचपन की शरारतों को गिनाना शुरू न कर दे। शायद ही कोई ऐसा होगा, जिसका बचपन शरारतों के साथ न गुजरा हो। शरारतें भी ऐसी कि जिसे यदि आज याद किया जाए, तो हमारे यौवन को भी शर्म आने लगे। लपटे वाली घास राह चलते किसी के पीछे से कपड़े पर सटाना, तितलियों और पतंगों को पकड़कर डिब्बे में बंद कर एक साथ छोड़ना, पतंगों के पीछे धागे बाँधना, कीचड़ से सने पैरों समेत बेधड़क घर में घुस जाना, पेड़ पर चढ़कर डालियों को तेजी से हिलाकर राहगीर को भिगो देना, बस्ते को जानबूझकर भिगो कर पाठशाला न जाने के बहाने करना, पेन की स्याही को बहते पानी में डालना, पानी भरे जूतों से थपथप करते हुए चलना, पानी भरे गड्ढों से ही गुजरना, अगर याद करने लगे तो ऐसी शरारतों की सूची काफी लंबी हो सकती है, कोमल मन की कोमल भावनाओं से परिपूर्ण हमारा बचपन आज भी हमारे भीतर है, पर हम हैं कि उसे समाज की लाज से या जिम्मेदारियों से हम बचपन को बाहर ही नहीं आने देते हैं।

आज हम जब बच्चों को शरारतें करते देखते हैं, तब एक बार तो लगता है कि बच्चे ये सब क्या कर रहे हैं कितना शैतानी कर रहा है, पर तभी हमारे अन्तर्मन से आवाज आती है, क्या तुमने यह सब नहीं किया? सिराज फ़ैसल ख़ान की एक शेर है 'किताबों से निकल कर तितलियाँ ग़ज़लें सुनाती हैं, टिफ़िन रखती है मेरी माँ तो बस्ता मुस्कुराता है' कितना जीवन खुशरंग था जब हम सब यारों सहित स्कूल में टिफ़िन शेयर कर खाना खाते थे। आज ना तो मित्रों की टोली साथ हैं। आज हम सोचते हैं कि हमारा बचपन अब ज़िम्मेदारियों के तले कहीं दब सा गया है और एक यह उम्र, जब बचपन को याद करते हुए आंखें भीगे जा रही हैं। जब बारिश के पानी को पलकों पर लेना, कभी उसका स्वाद अपनी जीभ पर लेना कितना आनन्ददायक था। कभी अगर धोखे से पानी यदि खुली आंख में चला जाए तब आंखों में काफी पीड़ा होता थी। लेकिन उस समय ये हमारी पीड़ाए नहीं थी। पीड़ा ये थी की गुरु जी क्लास में आ गये तो पढ़ाई को लेकर धुलाई न कर दे। आज हमारा बचपन तो हमारे साथ है, पर आजकल के बच्चों का बचपन शायद बहुत दूर जा रहा है। बारिश के बहते पानी में उनकी कागज की कश्ती दूर कहीं चली गई है। उनकी हरकतों में वह मस्ती, वह उमंग, वह अल्हड़ता, दिखाई नहीं देती, जिसे हमने विरासत में पाया।

हमारे बचपन में तो चाँद में परियाँ रहती थी और चंदा हमारे मामा हुआ करते थे, पर आजकल बच्चों के बचपन में परी तो नहीं रहती हैं, बल्कि चाँद में क्या सचमुच जीवन है या नहीं, यही उनके शोध का विषय बना हुआ है। कॉपी-किताबों, टीवी, चैनल, कम्प्यूटर ने उनके बालपन को सीधे यौवन में पहुँचा दिया है। आज उनका बचपन स्कूल, ट्यूशन और होमवर्क में बंट कर रह गया है। अब कहाँ थमती है उनकी नन्हीं हथेलियों पर पानी की बूँदें, रिमझिम फुहारें उन्हें भिगो नहीं पाती, पैरों तले फिसलती रेत की गुदगुदी को वे अब कहाँ महसूस कर पाते हैं, उनकी कल्पनाओं में कोई कागज की कश्ती हैं ही नहीं, तितलियों और पतंगों की हल्की-सी छुअन का अहसास भी नहीं जागता उनकी हथेलियों में। उनकी नन्हीं आंखों में पल रहे हैं माता-पिता के खूब सारे सपने और पीठ पर लदे है अपेक्षाओं का बोझ। ऐसे में भला बताइए कहाँ ठहर पाता है बचपन? हमने तो खूब जिया अपने बचपन को, पर आजकल के बच्चे अपने बचपन से काफ़ी दूर हो गये हैं। यदि हम उनमें अपना ही बचपन देखना चाहते हैं, तो उनके बचपन के साथ अपने बचपन को मिलाकर एक बार, केवल एक बार अपने पास के नदी, तालाब में खूब नहाएं, खूब बतियाएँ, खूब मस्ती करें और बारिश हो तो खूब छोड़ें कागज की कश्तियाँ। बेशक कितना सुखद है न तितलियाँ का पीछा करना उनके साथ दौड़ लगाना सोर मचाना, खिलखिलाकर हँसना जीवन कितना सरल हो जाता है उनके खेल से उत्साहित होकर अपनी उम्र भुलकर जब हम बच्चों के साथ बच्चा हो जाते हैं।


- बालानाथ राय

 शेरपुर, गाज़ीपुर

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