तथ्य और किताबी ज्ञान के लिए हिन्दी हमारे देश की राजभाषा है लेकिन वर्तमान समय में हम इस बात से इन्कार नहीं कर सकते की हिन्दी के ऊपर संकट गहराता जा रहा है। भारत के लोगों में हिन्दी के प्रति दिलचस्पी घटती जा रही है। आज लोग चाहते हैं कि उनके बच्चे फर्राटेदार अंग्रेजी बोले और वे कुछ नहीं तो कम से कम हाथ में अंग्रेजी पुस्तकें ही पकड़ कर चलना पसन्द करते है। हिन्दी बोलने और पढ़ने में शर्म महसूस करते है उन्हें लगता है कि अंग्रेजी पढ़ना और बोलना ही प्रगतिशील की निशानी है। जब हम बड़े बड़े विद्वानों, कवियों और नेताओं के जीवनी को पढ़ते है तो पता चलता है कि उन्हें संस्कृत, हिन्दी, फ़ारसी भाषाओं का ज्ञान था क्योंकि पहले की शिक्षा व्यवस्था में सभी भाषाओं को सीखने के लिए समान रूप से जोर दिया जाता था।
जहाँ आज आधुनिक युग के महंगे स्कूल, लंबी बसें, अत्याधुनिक कंप्यूटर चलती कक्षा आदि व्यवस्था आ गयी है लेकिन क्या आज भी वही शिक्षा हम पा रहे हैं जिसकी हम उम्मीद करते हैं, हमारे बच्चे आज बड़े स्कूलों में महंगी फ़ीस और समान देकर जाते हैं लेकिन परिणाम वो अपने देश की भाषा हिंदी में ही कमज़ोर हैं। यह गलती बच्चों की नहीं बल्कि हमारी है शायद क्योंकि हमने बचपन से उन्हें अंग्रेज़ी ही पढ़ने पर मज़बूर किया क्योंकि हमें लगता है वो अंग्रेज़ी सीखकर ही उचित पद पा सकते हैं।
जब बच्चा डेढ़ दो साल का हो जाता है तभी से हम उसे पानी को वाॅटर, गाय को काऊ कहना ही सिखाने में लग जाते है तब वह बड़े होने पर सिर्फ अंग्रेज़ी ही अंग्रेज़ी जो कि हमारी भाषा नहीं जिसे द्वितीय भाषा के रूप में रखना चाहिए हमने उसे प्राथमिक बना दिया और खुद की भाषा हिन्दी के साथ हमने सौतेला व्यवहार अपनाया है।
आज हिन्दी का स्तर इस कदर गिर चुका है कि उत्तर प्रदेश जैसे हिन्दी बहुभाषी राज्य में इस साल करीब आठ लाख बच्चे दसवीं और बारहवीं की परीक्षा में हिन्दी में फेल हुए हैं और शायद इसमें उनका कसूर नहीं हमारा है, हमने बचपन से इस दिन के लिए उन्हें तैयार किया क्योंकि हमने कभी उन्हें हिन्दी पढ़ने ही कहाँ दिया ?
हिन्दी की हमने सिर्फ अवहेलना की, एक बच्चा जो हिन्दी के देश में पैदा हुआ और उसी में उसको कुछ नहीं आ रहा है, आज बड़े बच्चे भी हिंदी नहीं लिख पा रहे हैं, और रही बात अंग्रेजी की तो उसको भी हमने सिर्फ उन्हें रटाया ही है जो वो बोलना जानते हैं, लिखना जानते हैं लेकिन वो व्याकरण में ढीले नज़र आते हैं।
आचार्य चाणक्य का एक कथन है जिसमें उन्होंने कहा था कि "कोई राष्ट्र तबतक पराजित नहीं होता, जब तक वह अपने संस्कृति और मूल्यों की रक्षा कर पाता है।"उनका यह कथन वर्तमान भारत के परिदृश्य को बहुत अच्छे तरीके से परिभाषित करता है। जिसमें आज हम सभी के बीच अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी तरीकों को अपनाने की होड़ है, जिसके लिए हम अपनी मूल भाषा और जीवन पद्धति को भी त्यागने को तैयार हो गए हैं।
हालांकि अब लोग इस विषय को गंभीरता से ले रहे है और हिंदी का महत्व समझने लगे है, प्रधानमंत्री ने भी राष्ट्रीय शिक्षा नीति- २०२० के तहत ‘२१वीं सदी में स्कूली शिक्षा' विषय पर एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए बच्चों को कम से कम पांचवीं कक्षा तक मातृभाषा या स्थानीय भाषा में पढ़ाने की जरूरत पर जोर दिया। जोकि हमारे देश और समाज के लिए यह एक अच्छा संकेत है।
मीठी सी प्यारी सी वाणी हमारी,
सीधी सी सरल सी हिन्दी हमारी।
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