देश में कोरोना संक्रमण के बढ़ते मामलों के मद्देनज़र इससे निपटने के लिए वक़्त का तकाज़ा है, जाहिर सी बात है इस महामारी का सीधा असर अगर कहीं पड़ा है तो रोजी रोजगार पैदा करने वाले उन सभी क्षेत्रों पर पड़ा है जिनके सहारे लाखों मजदूर अपने गाँव - जिलों से मिलों दूर देश के बड़े-बड़े शहरों में आकर अपना गुजारा करते हैं और मात्र जीवनयापन करने भर का इंतजाम कर पाते हैं, तमाम ऐसे लोग हैं जिनके घर का चूल्हा उनकी रोज़ की दिहाड़ी से जलता है। सारे कामकाज बंद हो जाने की स्थिति में उन सभी का अपने गाँव से दूर शहर में रह पाना दूभर हो रहा है। ऐसे में प्रतिदिन आ रहे आँकड़े बेहद ख़ौफ़नाक और डराने वाले हैं । साल भर बाद कोरोना ज्यादा विकराल आकार लेता जा रहा है प्रारंभिक महीने तो किसी वैज्ञानिक शोध और व्यवस्थित उपचार के बिना बीते ।
विश्व बैंक , चीन और अमेरिकी राष्ट्रपति के बीच जारी आरोप प्रत्यारोपनेसमूचे संसार को एकतरह से दुविधा में डालकर रखा । चिकित्सा की कोई वैज्ञानिक पद्धति विकसित हो पाई और न ही दुनिया भर डॉक्टरों में कोई आम सहमति बन सकी । शुरूआत में इसे चीन की प्रयोगशाला का घातक हथियार माना गया । बाद इसे संक्रामक माना गया तो कभी इसके उलट तथ्य प्रतिपादित किए गए । कभी कहा गया कि यह तेज गर्मी में दम तोड़ देगा तो फिर बाद में बताया गया कि तीखी सर्दियों की मार कोरोना नहीं झेल पाएगा । हालांकि चार - छह महीने बाद फिर एक ऐसा दौर भी आया, जब लगा कि हालात नियंत्रण में आ रहे ज़िंदगी की गाड़ी पटरी पर लौटने लगी है।लोग राहत की सांस भी नहीं ले पाए कि तब तक आक्रमण फिर तेज हो गया । यह भी एक किस्म का भ्रम ही था पिछले कुछ महीने में तो इस संक्रामक बीमारी का जिस तरह विस्तार हुआ है , उसने सारी मानव बिरादरी को हिला दिया है । रोज़ मिलने वाली जानकारियों पर एकबार भी भरोसा करने को जी नहीं करता । मानवता के इतिहास में शायद ही कोई ऐसा दूसरा उदहारण होगा जिसमें आर्थिक , राजनीतिक , धार्मिक और सामाजिक ताने बाने को चरमराते देखा गया हो । कोई भी देश हो या समाज हो अपनी बदहाली , गरीबी , बेरोजगारी या व्यवस्था के चरमराने पर दोबारा नए सिरे से अपनी जीवन शुरू कर सकता है लेकिन अगर सामाजिक मूल्य और सोच की शैली विकलांग हो जाए तो सदियों तक उसका असर रहता है।
मौजूदा सिलसिले की यही कड़वी हकीकत खासकर भारत के सन्दर्भ में कहना अनुचित नहीं होगा कि बड़े से बड़े झंझावातों में अविचल रहने वाला हिन्दुस्तान अपने नागरिकों के बीच रिश्तों को अत्यंत क्रूर और विकट होते देख रहा है। क्या यह सच नहीं है कि कोरोना ने सामाजिक बिखराव की एक और कलंकित कहानी लिख दी है। एक बरस के दरम्यान हमने श्रमिकों और उनके मालिकों के बीच संबंधों को दरकते देखा।पति-पत्नी , बेटा-बहू, भाई-बहन , चाचा - ताऊ , मामा-मौसा फूफा जैसे रिश्तों की चटकन देखी।भारतीय समाज में एक कहावत प्रचलित है कि किसी के सुख मंगल काम में चाहे नहीं शामिल हों मगर मातम के मौके पर हर हाल में शामिल होना चाहिए। कोरोना काल तो जैसे मृत्यु के बाद होने वाले संस्कारों शामिल नहीं होने का सन्देश लेकर आया। लोग अपने दिल के बेहद निकट लोगों के अंतिम दर्शन तक नहीं कर पाए। आजादी के बाद सबसे बड़ा विस्थापन -पलायन हुआ। इस पलायन ने रोजी - रोटी का संकट तो बढ़ाया ही , आपसी संबंधों में भी जहर घोल दिया। क्या कोई इस तथ्य से इंकार कर सकता है कि कोरोना काल में रोजगार सबसे बड़ा मुद्दा बन कर उभरा है। जो परिवार वर्षों बाद शहरों से भागकर अपने गाँवों में पहुँचे हैं , वे अपनी जड़ों में नई जमीन को तलाश रहे है और उस गाँव कस्बे की हालत ये है कि उसके पास अपने बेटे को देने के लिए दो जून की रोटी भी नहीं है।
कहा जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है लेकिन हकीकत तो यह है कि हम अब असामाजिक प्राणी होते जा रहे हैं । यह निराशावाद नहीं है इस कालखंड का भी अंत होगा।साल भर में अनेक दर्दनाक कहानियों के बीच मानवता की उजली कहानियाँ भी सामने आई हैं । संवेदनहीनता के बीच कुछ फरिश्ते भी प्रकट होते रहे हैं । पर यह तो सरकारों को ही तय करना होगा ऐसी विषम परिस्थितियों के बीच अपनी आबादी की हिफाजत कैसे की जाए। यह उनकी संवैधानिक जिम्मेदारी है आज गाँवों , कस्बों जिलों और बड़े-बड़े शहरों में तरह तरह की विरोधाभासी ख़बरों के चलते निर्वाचित हुकूमतों की साख पर भी सवाल खड़े होने लगे हैं। जहां कोरोना संक्रमण से संपूर्ण विश्व कराह रहा है । सब जगह त्राहि - त्राहि मची है। ऐसे में भी मानवता के दुश्मन सौदेबाजी करने से बाज नहीं आ रहे। अखबारों , टीवी पर दिल दहला देने वाली खबरें पढने और सुनने को मिल रही हैं । एक तरफ हमारे डॉक्टर , स्वास्थ्य विभाग से जुड़े प्रत्येक कर्मचारी , अधिकारी , समाजसेवी संस्थाएं पुलिस विभाग और अन्य सभी सेवा भाव के साथ अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हैं , अनेक समाज सेवी संस्थाएं रात - दिन लग कर अपनी सेवाएं दे रहे हैं और दूसरी और कुछ लोग जो मरीजों की बेबसी , विवशता और मजबूरी का फायदा उड़ाने से नाहीं चूक रहे । ये कहीं इलाज में जरूरी इंजेक्शन का तो कहीं सांसों के लिए जरूरी प्राणवायु ऑक्सीजन सिलेंडर का सौदा कर रहे हैं ।
इनकी आत्मा मानो मर गई है संवेदना शून्य हो गई है । ऐसे लोगों को जलती असंख्य चिताएं , अपनों के खोने के दर्द से बिलखते परिजनों के आंसू , उखड़ती सांसों की बेबसी , ऑक्सीजन सिलेंडर के लिए भागते परिजनों का दर्द क्या नहीं महसूस होता ?उसी वर्ल्ड फार्मेसी वाले देश में दवाओं, रेमडेसिविर जैसे आक्सीजन और इंजेक्शन के लिए लोग दर-दर भटक रहे हैं। वे चौगुने - आठगुने दामों पर ब्लैक में खरीद रहे हैं। जबकि विदेशों से 3200 आक्सीजन सिलेंडर 5500 आक्सीजन कंसंटेटर्स, 480 आक्सीजन मशीन भारत भेजी गई 1000 से ज्यादा रेगुलेटर्स, 20 मिट्रिक टन लिक्विड आक्सीजन और दस लाख से ज्यादा एन-95 मास्क भारत भेजी गई हैं। 730 करोड़ डॉलर की सहायता भी भारत को अमेरिका ने दी है। रुस आदि देशों से सहायता बराबर भारत भेजी जा रही है लेकिन पता नही सहायता जा कहाँ रही हैं। मरीजों को अस्पताल तक पहुंचाने वाली एंबुलेंस को सौदेबाजी सुन कर और पढ़ कर मन अत्यंत द्रवित हो जाता है । क्या इन लोगों को आत्मा पत्थर हो गई है ? क्या इनके परिवार नहीं हैं , जो ऐसे लोग किसी की मजबूरी का सौदा करने में नहीं हिचक रहे जीवन रक्षक दवाओं की सौदेबाजी करते ये लोग क्या मनुष्य कहलाने के अधिकारी हैं ? एक ख़बर आई कि जीवन रक्षक इंजेक्शन रेमडेसिबिर में मिलावट और फिर उन्हें ऊंचे दामों पर बेचना तो कहीं कोरोना संक्रमित के दाह संस्कार में भी पैसे कमाने का मोह वे लोग नहीं छोड़ पा रहे ।
बीमारी में टूटा व्यक्ति और इनके दर्द और बेबसी से खिलवाड़ करते ये मानव गिद्ध। अस्पताल को चौखट तक पहुंचते ऑक्सीजन के अभाव में लोग दम तोड़ रहे हैं और ये मौत के सौदागर बिस्तर का सौदा पिछले दरवाजे से कर रहे हैं। मानवता कराह उठी हैं, पर इनका दिल नहीं पसीजता। ऐसा लगता है मानो इन्हें न कानून का डर है, न किसी और बात का। इन सब घटनाओं को देखकर लगता है कि हम कैसे युग में जी रहें है? आज सेवा और समर्पण भाव से व्यापक आवश्यकता है। लेकिन इंसानियत के दुश्मन लोगों के जीवन से खिलवाड़ कर रहें हैं । ऐसे लोगों के खिलाफ कड़ा रुख अपनाना चाहिए। जिससे इनके अमानवीय कृत्यों पर लगाम लग सके।
© बालानाथ राय
गाज़ीपुर, उत्तर-प्रदेश
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