मजरूह सुल्तानपुरी


हर्फों के जादूगर और दर्द के चारागार मशहूर शायर मजरूह सुल्तानपुरी जिसने अपने शब्दों के जादू से करोड़ों लोगों को दिवाना बनाया। मजरूह सुल्तानपुरी की पैदाइश 1 अक्टूबर 1919 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले का निजामाबाद गांव में हुआ था । यहां उनके वालिद पुलिस महकमे में तैनात थे। पुरखों की असल जमीन सुल्तानपुर में थी। पहले उनका नाम असरार उल हसन खान था। मजरूह सुल्तानपुरी की पैदाइश 1 अक्टूबर 1919 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले का निजामाबाद गांव में उनका जन्म हुआ था । पहले उनका नाम असरार उल हसन खान था। यहां उनके वालिद पुलिस महकमे में तैनात थे। पुरखों की असल जमीन सुल्तानपुर में थी।


      मजरूह साहब के वालिद की ख़्वाहिश थी की अपने बेटे मजरूह सुल्तानपुरी को अच्छी से अच्छी तालीम दिलाये और आगे चलकर वो एक बड़ा हकीम बनें । मजरूह सुल्तापुरी साहब ऊंची से ऊंची तालीम पाने चाहते थे, लेकिन उनके वालिद नहीं चाहते थे कि उनका बेटा अंग्रेजी सीखे-पढ़ें। इसलिए उन्हें मदरसे में भेज दिया। यहां उन्होंने अरबी और फारसी जुबान सीखी। फिर उनको वे यूनानी चिकित्सा पद्धति सीखने के लिए लखनऊ भेज दिया। सन् 1940 में पढ़ाई पुरी हुई तो सुल्तानपुर में अपना दवाखाना शुरू किया और अपने वालिद की ख़्वाहिश पुरा करने के साथ ही असरार ने अपनी शायरी पढ़ना शुरू कर दिये।

      वो असरार नासेह के नाम से लिखने लगे थे। उर्दू में नासेह का अर्थ होता है उपदेश उनको लगा अंग्रेज़ी सिखना कोई बुरी बात नहीं है, उन्होंने अंग्रेज़ी पढ़ी। मार्क्स और लेनिन को पढ़ा उनके लेखन पर भी असर दिखने लगा क्रांतिकारी शायरी के साथ नासेह उपनाम कुछ जम नहीं रहा इसलिए उनके मित्रों ने राय दिया की नाम बदलो। काफ़ी विचार करनें पर सामने आया मजरूह जिसका अर्थ होता है, घायल उन्होंने मजरूह के साथ अपने शहर का नाम जोड़ लिया जिससे मित्रों को भी एतराज़ नहीं था और इस तरह हिन्दुस्तान को मिला एक महान शायर मजरूह सुल्तानपुरी।

     लोगों की दाद उन्हें इतनी सच्ची और हौसलाबख्श लगी कि उन्होंने हाकिम का काम छोड़ दिये । उन्होंने मुशायरों में आमद बढ़ा दी। जिगर मुरादाबादी की शागिर्दी भी शुरू कर दी धीरे-धीरे मजरूह सुल्तानपुरी साहब का नाम पुरा देश में छा गया। सब्बो सिद्धकी इंस्टीट्यूट द्वारा संचालित एक संस्था ने सन् 1945 में एक मुशायरा का कार्यक्रम मुम्बई में आयोजित किया और इस कार्यक्रम का हिस्सा मजरूह सुल्तानपुरी भी बने। 

      जब उन्होंने अपने शेर मुशायरे में पढ़े तब वहीं कार्यक्रम में बैठे मशहूर निर्माता ए.आर.कारदार उनकी शायरी सुनकर काफ़ी प्रभावित हुए और मजरूह साहब से मिले और एक प्रस्ताव रक्खा की आप हमारी फिल्मो के लिए गीत लिखे। मगर मजरूह सुल्तानपुरी साहब ने उन्हें फिल्मों में गीत लिखने से साफ़-साफ़ मना कर दिया क्योकि उन दिनों अदबी तबके में इस तरह के कामों को हल्का माना जाता है। इसी कारण से उन्होनेे ए.आर.कारदार की प्रस्ताव ठुकरा दिया।

      जब जिगर मुरादाबादी साहब को पता चला तब सुल्तानपुरी साहब को समझाया और अपनी सलाह दी की फिल्मो में गीत लिखना कोई बुरी बात नहीं हैं। इससे मिलने वाली धनराशी को अपने परिवार को भेज सकते हैं जिससे परिवार का भी मदद हो जाएगा। फिल्मे बुरी नहीं होती इसमे गीत लिखना कोई गलत बात नहीं हैं। जिगर मुरादाबादी की बात को मान कर वो फिल्मो में गीत लिखने के लिए तैयार हो गए।

      इस तरह बतौर गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी का सफर कारदार साहब की फिल्म शाहजहां से शुरू हुआ था। कारदार उन्हें नौशाद के पास ले गए थे। उन्हें एक धुन सुनाई गई और इसपर बोल लिखने के लिए कहा गया। इस पर मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा गीत था – ‘जब उसने गेसू बिखराए, बादल आये झूम के...’ यह सन् 1946 में आई फिल्म "शाहजहां" के सबसे लोकप्रिय गानों में से था। इसी फिल्म के लिए उनका लिखा और केएल सहगल का गाया - "जब दिल ही टूट गया, अब जीके क्या करेंगे" हिंदी फिल्म इतिहास के अमरगीतों में स्थान रखता है। यह उनका शुरुआती गीत था।

       उस समय सहगल को यह गीत इतना पसंद आया था कि वे चाहते थे कि इसे उनके जनाजे में जरूर बजाया जाए, एक प्रख्यात गायक-अभिनेता के मुंह से मजरूह सुल्तानपुरी साहब के शुरुआती गीत के लिए इससे बड़ी तारीफ़ भला क्या हो सकती थी। इन्हीं गीतों के साथ-साथ मजरूह की दोस्ती नौशाद से भी शुरू हुई और बाद में दोनों रिश्तेदार भी बन गए। मजरूह सुल्तानपुरी साहब की बेटी की शादी नौशाद साहब के बेटे के साथ हुई थी।

      सन् 1949 में मुम्बई में मज़दूरों की हड़ताल हुई। मजरूह सुल्तानपुरी ने इस हड़ताल में शिरकत करते हुए एक ऐसी इंक़लाबी प्रतिरोधी नज़्म पढ़ी, नज़्म हैं –

मन में ज़हर डॉलर के बसा के,फिरती  है  भारत  की अहिंसा।
खादी की  केंचुल  को पहनकर,ये   केंचुल   लहराने   न   पाए।
ये  भी   है   हिटलर   का  चेला,मार  लो  साथी  जाने  न  पाए।
कॉमनवेल्थ  का  दास है नेहरू,मार  लो   साथी  जाने  न  पाए।

      सत्ता की छाती पर चढ़कर एक शायर ने वह कह दिया था, जो इससे पहले इतनी साफ़ और स्पष्ट आवाज़ में नहीं कहा गया था। हुकूमत ने जिसे अपने ख़िलाफ़ बग़ावत माना, तब सख़्त मिज़ाज मोरारजी देसाई गवर्नर थे। उनकी हिदायत पर उन्हें आर्थर रोड जेल में डाल दिया गया। उनके साथ बलराज साहनी की गिरफ्तारी भी हुई। 

       मजरूह सुल्तानपुरी और बलराज साहनी, दोनों से कहा गया कि वे माफ़ी माँग लेंगे तो रिहा कर दिए जाएँगे। मार्क्स और लेनिन के मुरीद मजरूह सुल्तानपुरी और बलराज साहनी ने माफ़ी माँगने से साफ़ इंकार करते हुए 2 साल तक जेल में रहना मंजूर किया। अलबत्ता जेल में रहकर भी सुल्तानपुरी लिखते रहे।

      इस दौरान उनका परिवार भारी आर्थिक तंगी में आ गया। जब राजकपूर ने उनके परिवार की आर्थिक मदद करनी चाही तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया। इसके बाद राजकपूर ने उन्हें अपनी फिल्म के लिए एक गाना लिखने को तैयार किया और इसका मेहनताना उनके परिवार तक पहुंचाया था। यह गाना था – "एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, जग में रह जायेंगे प्यारे तेरे बोल..." इसे राजकपूर ने सन्  1975 में आई अपनी फिल्म धरम-करम में इस्तेमाल किया था।

     दो वर्ष की सजा पूरी कर जब वो बाहर आये तब उन्होंने फिर से शुरू किया फ़िल्मी जगत का सफ़र नए जोश  के साथ और शुरू किया गीत लिखने का कार्य। फिर उन्होंने लगातार अपने जीवन काल तक गीत लिखा,मजरूह सुल्तानपुरी ने अपने जीवनकाल में लगभग 300 फिल्मों के लिए 4000 गीत लिखे हैं। फिल्मों की संख्या का गीतों के हिसाब से कम होना दिखाता है कि वे अन्य गीत लेखकों की तरह एक दो गीत के लिए किसी फिल्म से नहीं जुड़े, वे जहां रहे पूरी तरह जुड़कर, पूरे मन से लेकिन अपनी शर्तों पर रहे।

     मजरूह सुल्तान ने फिल्म जगत में अपने गीतों के द्वारा महत्वपूर्ण योगदान दिया और इसे देखते हुए उन्हें कई सम्मान एवं पुरस्कार से उन्हें नवाज़ा गया। 1964 मे आई फिल्म दोस्ती के लिए लिखे गीत "चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे"  के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीतकार के रूप में  "फिल्म फेयर" का अवार्ड मिला। मजरूह सुल्तानपुरी साहब को 1993 में दादा साहब फालके अवार्ड से भी नवाजा गया। 24 मई, 2000 को जनाब मजरूह सुल्तानपुरी नाम के एक युग का अंत मुंबई में हो गया। 

मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर 
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया
(मजरूह सुल्तानपुरी)

一 बालानाथ राय

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