अकेलापन जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप हैं और दुर्भाग्यवश ऐसे अभिशप्त लोगों की संख्या में दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही हैं।इसमें जीवन के हर जाति आयुवर्ग के स्त्री पुरुष शामिल हैं। हम बचपन से लेकर बड़े होने तक ऐसी बातों से हम गुजरते रहते हैं,अच्छे भले रिस्ते कई बार मोड़पर आकर टकराकर बिखर ही जाते हैं, जबकि उनमें कोई भंवर नहीं होते वह तो ऐसे ही चलते रहते हैं कोई आता हैं तो दूसरे को भूल ही जाते हैं।
आजकल लोग अपने करीबी मित्र, पड़ोसियों को भूलते जा रहे हैं और नये नये सोशल मीडिया पर दूर दूर के मित्र बनाते जा रहे हैं।
जिनसे अपने आस पास के लोगों से बात करने में भी शर्म महसूस करते जा रहे हैं।सबका जीवन एक कमरे तक रहकर ही सिमट गया।आजकल के बच्चे हो या बुजुर्ग अपना पूरा दिन सोशल मीडिया पर गुजार देते हैं, उन गाँवों में जहाँ इमारतें नहीं झोपड़ियां हुआ करती थी,जहाँ गप्प मारने के लिए पेड़ो की छाँव खुले मैदान और बच्चों की शोर भरी शाम अब वो स्थिति कहाँ देखने को मिलता हैं।
खुला गलियारा होता था घुमावदार मोड़ तो अब हमारे जीवन में आईं हैं जब हम इमारतों की ओर बढ़ने लगे जहाँ रहने वाले को देखने के लिए गर्दन उंची करनी पड़ती थी।जहाँ हर कोई अपना मकान को ही अपना दुनिया समझने लगा है वही से शुरू हुआ कि वो हमारे घर नहीं आते तो हम भी उसके घर नहीं जाएंगे, वो हमसे बात नहीं करता तो हम भी उससे बात नहीं करेंगे यही सब हमारे अकेलेपन का मुख्य कारण बनते जा रहें हैं।
हम अपने नज़रिया बदलना चाहिए कई बार हमारे हालात नहीं बल्कि हमारे नज़रिया होती है जब आप घर से बाहर किसी से मिलना बोलना छोड़कर आप सोशल मीडिया को ही आप अपना संसार बनाते जाएंगे तो आप कुछ दिन के बाद अपने आपको असहाय महसूस करनें लगेंगे।उस दिन आपकों लगने लगेगा की कोई मेरे साथ नहीं हैं फिर यही अकेलापन धीरे-धीरे अवसाद यानी Depression में बदल जाएगा।
जिस तेजी से हमारे आसपास हिंसा, गुस्सा और आत्महत्या बढ़ रही है। उसमें इन कारणों का प्रभाव सबसे अधिक है। हम एक समाज के रूप में हर दिन और अधिक दुखी होने की ओर बढ़ रहे हैं। हमारा अपने ऊपर से नियंत्रण कम होते जाना एक खतरनाक संकेत है, उस खतरे का जो आने ही वाला है।
युवा अपने सपनों से माता-पिता को बाहर का रास्ता दिखा रहे हैं तो माता-पिता अपने विचारों से इंच भर भी डिगने को राजी नहीं दिखते।
स्वतंत्र होने की चाह का अर्थ स्वच्छंद होना नहीं है। हम स्वतंत्र होने की चाह लिए हर दिन और अधिक स्वच्छंद हुए जा रहे हैं।
अमेरिकन और यूरोपियन समाज की जीवनशैली और सोच-समझ भौतिक से उस आध्यात्मिक मोड़ की ओर जा रही है, जहां कभी हम थे। हम एक संतुष्ट और प्रेम समाज थे। हमारी व्यवस्था में भी बड़ी खामियां थी और हैं। लेकिन उसके बाद भी प्रेम और संतोष हमारा स्थायी भाव था।
एक-दूसरे के लिए कष्ट सहना और एक-दूसरे के साथ रहना हमारी जीवनशौली का अहम हिस्सा था। जिसमें खतरनाक बदलाव होते जा रहे हैं।
हम भारतीय संवाद से अधिक गुस्से की ओर बढ़ रहे हैं। पहले संयुक्त परिवार, उसके बाद अब एकल परिवार और अब एकल के बाद ‘सेल्फ’ यानी मैं, मैं यानी ऐसी दुनिया जिसमें दूसरे के लिए कोई जगह नहीं। सबकुछ बस मेरी और बस मेरी चाहतों के इर्द-गिर्द सिमटा हुआ है।
यह मैं और मेरा ही प्रेम के सिमटने का सबसे बड़ा कारण बन रहा है।अपने से प्रेम में कोई खामी नहीं लेकिन अगर उसमें दूसरों के लिए कुछ नहीं होगा तो वह प्रेम, प्रेम नहीं शुगर बन जाएगा।
जो शरीर को नुकसान के अतिरिक्त कुछ नहीं देती। जैसे शुगर हमारे भीतर ही बनती है, जिसके अनेक कारण होते हैं। लेकिन उसमें से एक समय पर अपने ही शरीर में हो रहे परिवर्तनों की अनदेखी भी होती है।
जिसकी बाद में कीमत चुकानी होती है, ठीक वैसा ही प्रेम के बारे में है।इसके प्रति पर्याप्त सजगता के साथ समर्पण, स्नेह जरूरी है, अन्यथा जीवन की नदी बहुत जल्द सूख जाएगी।
अकेलापन आपको मानसिक रूप से बीमार ही नहीं बनाएगा बल्कि शारीरिक रुप से भी बीमार बना देगा।एक रिसर्च के अनुसार पता चला है कि अकेलापन शरीर को उतना ही नुकसान पहुंचाता हैं जितना एक दिन में पन्द्रह सिगरेट पीने से शरीर को नुकसान होता हैं।
अकेलापन के कारण तनाव व्याकुलता आत्मविश्वास में कमी जैसी मानसिक बीमारियां होती हैं हमें हमेशा अकेलापन का शिकार होने से बचना चाहिए।एक बात हमेशा ध्यान में रखें कि इंसान शारिरिक और मानसिक रूप से समाज में रहने के लिए ही बना है, अकेले रहना हमारा गुण ही नहीं हैं। अगर आप अकेलेपन के शिकार हो रहे हैं इसका मतलब प्रकृति ने हमें जैसा बनाया है आप उसके खिलाफ जा रहे हैं।
हमें अपना सोंच बदलना चाहिए कई बार हमारे हालात नहीं बल्कि हमारी सोंच अकेलापन की वज़ह बनती हैं।
一 बालानाथ राय
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